तानाशाही के काले चश्मे से जनता की लौ नही बुझती

जेल की सलाखों में कैद वैज्ञानिक की चिंगारी
लद्दाख की बर्फीली चोटियों से उठी सोनम वांगचुक की आवाज़ आज सत्ता के तख्त को डराने लगी है। वह शख्स, जिसने सियाचिन में जवानों के लिए सौर तंबू बनाए, आइस स्तूप से पानी का जादू रचा, और शिक्षा सुधार का लद्दाखी मॉडल दुनिया को दिखाया, उसे अब “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” का तमगा थमा दिया गया। यह कैसी बेहूदा मजाक है? जो वैज्ञानिक सर्दी में जवानों की जान बचाता रहा, उसे अब सत्ता की गर्मी में “देशद्रोही” का लेबल चिपकाकर जेल में ठूंस दिया गया। लगता है, सरकार को अब दुश्मन सीमा पर नहीं, बल्कि अपनी ही जनता के चेहरों में दिखने लगे हैं। सत्ता का यह काला चश्मा इतना गहरा है कि उसमें देशभक्ति की चमक भी “खतरे” की साजिश नजर आती है।
वांगचुक ने कभी बंदूक नहीं उठाई; उनका हथियार तो अहिंसा, विज्ञान और नवाचार रहा। मगर सत्ता ने उनके हाथ में हथकड़ी थमाकर साबित कर दिया कि “देशभक्ति” का सर्टिफिकेट सिर्फ मंचों पर बिकता है, जनता की आवाज़ उठाने वालों के लिए नहीं। “स्टार्टअप इंडिया” और “आत्मनिर्भर भारत” का राग अलापने वाली सरकार, जब लद्दाख की छठी अनुसूची, पर्यावरण और स्थानीय अधिकारों की बात आती है, तो इंटरनेट बंद, धारा 144 लाद, और NSA का डंडा लेकर मैदान में कूद पड़ती है। यह वही सरकार है जो नवाचार का ढोंग रचती है, लेकिन नवाचारी वैज्ञानिक को जेल में डालकर अपनी “लोकतांत्रिक उपलब्धियों” का तमाशा दिखाती है।
**लोकतंत्र की सर्दी में जलता जनता का आलम**
21 सितंबर, 2025 को लद्दाख का “दिल्ली चलो” आंदोलन शुरू हुआ। मांग थी संविधान की छठी अनुसूची, लद्दाख की संस्कृति और पर्यावरण की रक्षा। शांतिपूर्ण लोग, गांधीवादी रास्ता, और साफ-सुथरी मंशा। मगर सत्ता ने जवाब में क्या किया? इंटरनेट ठप, धारा 144 का तमाचा, और वांगचुक समेत कार्यकर्ताओं को जेल की सलाखों में कैद। यह वही जनता है जिसने आज़ादी की लड़ाई में खून बहाया, संविधान को सीने से लगाया, और लोकतंत्र को जिंदा रखा। लेकिन आज उसकी आवाज़ को कुचलने के लिए सत्ता ने तानाशाही का काला चश्मा चढ़ा लिया है। इस चश्मे में जनता की तकलीफें गायब हैं, सिर्फ कुर्सी की चमक और सत्ता का नशा दिखता है।
इतिहास चीखता है आवाज़ दबाओगे, तो वह तूफान बनकर लौटेगी। वांगचुक का जीवन उनके इरादों का आईना है सौर तंबू, आइस स्तूप, शिक्षा सुधार ये सब चिल्लाकर कहते हैं कि वे देशभक्त हैं, कोई “खतरनाक साजिशकर्ता” नहीं। सवाल यह है: असली खतरा कौन? वह वैज्ञानिक, जिसने सियाचिन की सर्दी में जवानों को गर्मी दी, या वह सत्ता, जो लोकतंत्र को जेल की सर्द सलाखों में ठूंसकर “शांति” का ढोंग रच रही है?
लद्दाख की मांगें 2019 से गूंज रही हैं, जब इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। छठी अनुसूची, स्थानीय अधिकार, पर्यावरण की रक्षा,ये कोई बगावत नहीं, संविधान का हक है। मगर सरकार का रवैया “सब चंगा सी” वाला रहा। और जब वांगचुक जैसे लोग सच का आलम जलाते हैं, तो उन्हें NSA के डंडे से चुप कराने की नौटंकी शुरू हो जाती है। मगर सत्ता भूल रही है लद्दाख की बर्फ में भी जो लौ जली, उसे दिल्ली की गर्मी क्या बुझाएगी?
वांगचुक की गिरफ्तारी एक व्यक्ति की हिरासत नहीं, लोकतंत्र पर सत्ता का थप्पड़ है। सत्ता को लगता है कि धारा 144 और NSA से वह जनता की आवाज़ को गला घोंट देगी। मगर यह भूल है। जनता की चिंगारी जंगल की आग बनकर कुर्सियों को राख करती आई है। तानाशाही का काला चश्मा भले ही चमक रहा हो, लेकिन जनता की लौ ऐसी है कि वह पिघलाकर ही दम लेगी।

