चाय,पकोड़ी और बचत ये है नये भारत का हिसाब-किताब”
✍️ प्रेरणा गौतम

देश में इन दिनों एक अनोखा महोत्सव चल रहा है GST महोत्सव जी हाँ, वह महोत्सव जहाँ सरकार के प्रवक्ता और उनके चेलों का पूरा गिरोह जनता को यह समझाने में जुटा है कि आपकी हर पकोड़ी, हर चाय की चुस्की और हर बिस्किट के टुकड़े में छुपी है ‘महान बचत’ की अलौकिक शक्ति। टीवी डिबेट्स से लेकर व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के ‘फॉरवर्डेड मैसेजेस’ तक यही उद्घोष गूंज रहा है: “देखिए भाईसाहब, पहले आप ठगे जाते थे, अब टैक्स देकर अमीर हो रहे हैं!” मानो GST कोई जादुई छड़ी हो, जो जेब से पैसे निकालते हुए भी बैंक बैलेंस बढ़ा देती है।
लेकिन प्रमाणों की बात करें तो क्या कहें? हाल ही में सितंबर 2025 में GST परिषद ने रेट्स में ‘क्रांतिकारी’ बदलाव किए हैं। अब मुख्य रूप से दो स्लैब: 5% और 18%, साथ में 0% और 40% के ‘लक्ज़री’ टैक्स। उदाहरण के लिए, बिस्किट्स, जो पहले 18% पर थे, अब 5% पर आ गए हैं सरकार कहती है, “बचत हो गई!” लेकिन जमीनी हकीकत? दुकानदारों का कहना है कि इनपुट कॉस्ट बढ़ने से कीमतें वैसे की वैसी रहती हैं। पकोड़ी या नमकीन जैसे स्नैक्स भी 5% पर, लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि पहले ये लोकल बाजार में बिना टैक्स के बिकते थे? अब हर काट पर सरकार की हिस्सेदारी, और जनता को बताया जा रहा है कि यह ‘राष्ट्रीय विकास’ का हिस्सा है। चाय? वह भी फूड एंड बेवरेजेस के तहत 5% पर, लेकिन कैफे में एक कप 50 रुपये का हो गया, जिसमें ‘बचत’ कहाँ छुपी है? आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक, GST से सरकारी राजस्व 2024-25 में रिकॉर्ड 22 लाख करोड़ रुपये पहुंचा, लेकिन रोजगार? वह तो अभी भी ‘अगले बजट’ में आने वाला है।
जनता हक्का-बक्का खड़ी है, जैसे कोई जादूगर ने उन्हें हिप्नोटाइज कर दिया हो। आखिर किस महान गणितज्ञ ने यह फॉर्मूला ईजाद किया कि जेब से ज्यादा पैसे निकलने पर भी ‘बचत’ हो रही है? प्रमाण बताते हैं कि GST से अर्थव्यवस्था में औपचारिकता बढ़ी है, GDP ग्रोथ में 1-2% का योगदान, लेकिन आम आदमी के लिए? महंगाई की मार में ‘बचत’ का मतलब सिर्फ यह कि अब टैक्स रिटर्न फाइल करने का खर्चा अलग से। लोकतंत्र में सवाल पूछना अब ‘देशद्रोही’ का सर्टिफिकेट दिला देता है, सो लोग चुपचाप ‘महोत्सव’ मनाने का नाटक कर रहे हैं। कल तक जो बाजार में सौदा-पानी करते थे, अब GST ऐप पर कैलकुलेटर चलाते हैं, “भाई, इस पकोड़ी पर 5% टैक्स, लेकिन बचत 13% की, क्योंकि सरकार कह रही है!”
और सबसे मजेदार है हमारे ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ का हाल। ये लोग स्टारबक्स जैसे महंगे कैफे में बैठकर, ऐप्पल के लैपटॉप पर टाइप करते हुए, बड़ी गंभीर मुद्रा में लोकतंत्र की चिंता जताते हैं। “GST से अर्थव्यवस्था बूम पर है,” वे कहते हैं, लेकिन जैसे ही सत्ता का कोई ट्रोल उन्हें ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का तमगा थमा देता है, ये बेचारे चुपचाप अपनी लैटे की चुस्की लेने लगते हैं। डर यह कि ज्यादा बोलने पर उनकी ‘बचत’ भी GST के 40% ‘लक्ज़री’ स्लैब में समा जाएगी! प्रमाण? हालिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि GST रिफॉर्म्स से कंज्यूम्प्शन ग्रोथ बढ़ेगी, लेकिन बुद्धिजीवियों की आवाज? वह तो सोशल मीडिया के ‘ब्लॉक’ बटन के पीछे छुपी है।
असल चिंता यह नहीं कि GST महोत्सव से पकोड़ी सस्ती हुई या महंगी बल्कि हालिया रेट कट्स से किराना बास्केट 13% सस्ता होने का दावा है, लेकिन क्या असली कीमतें घटीं? नहीं, असल चिंता यह कि जनता के दिमाग को इतना उलझा दिया गया है कि वह असली सवाल भूल रही है। “रोजगार कहाँ है?” की जगह अब बहस “किसने कितना टैक्स बचाया?” पर सिमट गई है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि GST से रोजगार बढ़ा है, क्योंकि आउटपुट बढ़ने से कंपनियां हायरिंग कर रही हैं, लेकिन ग्रामीण भारत में बेरोजगारी अभी भी 8-10% पर टिकी है। “लोकतंत्र कहाँ है?” की जगह गूंजता है “कौन ज्यादा धार्मिक है?” या “किसका टैक्स ज्यादा पवित्र है?”
यह GST महोत्सव नहीं, बल्कि एक बड़ा धोखा है, जहाँ टैक्स को ‘बचत’ का नाम देकर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। लेकिन चिंता न करें, अगला महोत्सव शायद ‘इनकम टैक्स उत्सव’ होगा, जहाँ सैलरी से कटौती को ‘राष्ट्रीय योगदान’ कहा जाएगा। जय हो!

