
3 दिसंबर 1984 भारतीय इतिहास की वह काली, भयावह और दर्दनाक रात जिसे याद करते ही आज भी रूह काँप जाती है। आधी रात के बाद घड़ी ने जैसे ही दो बजकर छह मिनट का समय छुआ, भोपाल शहर की हवा मौत में बदल चुकी थी। यूनियन कार्बाइड कारखाने से लीक हुआ मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) का अत्यंत विषैला बादल कुछ ही मिनटों में लाखों लोगों को अपनी गिरफ्त में ले चुका था। यह सिर्फ एक औद्योगिक दुर्घटना नहीं थी, यह नियोजनहीनता, लापरवाही और कॉर्पोरेट लालच का वह उदाहरण है जिसके दंश से आज भी हजारों परिवार कराह रहे हैं।
मौत का धुआँ और बेबस शहर
उस रात किसी ने सोचा भी नहीं था कि नींद में सोया पूरा शहर आंखें खोल भी नहीं पाएगा। लोग खांसी, घुटन, जलन और बेहोशी के बीच घरों से बाहर भागने लगे। बच्चे छटपटाने लगे, महिलाएँ गिरने लगीं, बूढ़े कुछ कदम चलने से पहले ही दम तोड़ते गए। सड़कें मानव लाशों से पटी थीं। अस्पतालों में पीड़ितों की ऐसी भीड़ उमड़ी जिसे संभालना किसी भी व्यवस्था के बस में नहीं था। डॉक्टरों को यह तक समझ नहीं आ रहा था कि शरीर में कैसे और किस तरह का ज़हर फैल चुका है।
सरकारी आंकड़े 3,000 मौतें बताते हैं, लेकिन वास्तविक संख्या 15,000 से 20,000 के बीच मानी जाती है। लाखों लोग स्थायी रूप से बीमार हो गए आंखों की रोशनी गई, फेफड़े बर्बाद हुए, त्वचा झुलसी, और सांसे आजीवन दूभर हो गईं। जहरीली गैस ने सिर्फ उस रात लोगों को नहीं मारा, वह आने वाली पीढ़ियों को भी बीमार बनाकर गई।
त्रासदी की जड़ एक लापरवाह संयंत्र
भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड का कारखाना कीटनाशक बनाने के लिए एम आई सी जैसे अत्यंत खतरनाक रसायन का उपयोग करता था। सुरक्षा मानकों की अनदेखी, उपकरणों की खराब हालत और लागत कम करने की हड़बड़ी ने इस संयंत्र को बम बना दिया था।
घटनाओं की जांच से बाद में पता चला कि सुरक्षा अलार्म बंद थे वॉशिंग सिस्टम निष्क्रिय था गैस टैंक पर प्रेशर कंट्रोल सिस्टम खराब था कारखाने की दीवारें और नालियां रिसाव रोकने में असमर्थ थीं अर्थात, एक वैश्विक कंपनी ने जानबूझकर वह सब नजरअंदाज किया जो लाखों लोगों की जान बचा सकता था।
सरकारी निष्क्रियता और लाचार व्यवस्था
त्रासदी के बाद सरकारी प्रबंधन की कमजोरियां भी उजागर हुईं। राहत का कोई ठोस प्लान नहीं था। अस्पतालों में दवाइयों की कमी, जानकारी का अभाव और प्रशिक्षित स्टाफ की गैरमौजूदगी ने मौतों को और बढ़ा दिया।
दुर्घटना के बाद भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज किया, लेकिन विश्व की इस बड़ी कंपनी को जिम्मेदार ठहराने में न तो राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई दी, न ही न्यायिक प्रक्रिया पर्याप्त कठोर रही। कंपनी के प्रमुख वॉरेन एंडरसन को गिरफ्तार किया गया, पर तुरंत जमानत पर रिहा कर देश से बाहर जाने दिया गया और वह कभी वापस नहीं आया।
जहरीली विरासत अगली पीढ़ियों का दर्द
भोपाल गैस कांड की सबसे भयावह बात यह है कि इसका असर आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। हजारों बच्चे जन्म से ही
शारीरिक विकलांगता
हृदय एवं फेफड़ों की बीमारियां
तंत्रिका तंत्र की गड़बड़ियां
मानसिक विकास में कमी
कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र
जैसी समस्याओं के साथ पैदा हुई।
जिन माता-पिता ने गैस प्याली, उनके शरीर में उतना गहरा जहर घुल गया कि अगली पीढ़ी भी उसके प्रभाव से नहीं बच सकी। यह दुनिया का ऐसा अनोखा औद्योगिक कांड है जिसका असर चार दशक बाद भी हर वर्ष नई पीढ़ियों को बीमार बनाकर सामने आता है।
उद्योग, न्याय और सुरक्षा क्या हमने कुछ सीखा?
भोपाल गैस त्रासदी के बाद भारत में कई नीतियां बदलीं
खतरनाक उद्योगों पर निगरानी
आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणाली का निर्माण
परंतु असल सवाल यह है कि क्या हम वास्तव में सुरक्षित हैं? 1984 से अब तक कई रासायनिक दुर्घटनाएँ हुईं जिनकी जड़ें लगभग वही थीं लापरवाही, भ्रष्टाचार और निगरानी की कमी।
भोपाल की त्रासदी ने दुनिया को यह सिखाया कि उद्योगों का विस्तार मानव जीवन और पर्यावरण की कीमत पर नहीं किया जा सकता। लेकिन यह सीख आज भी पूरी तरह लागू नहीं हुई।
स्मृतियाँ आज भी ज़िंदा हैं
41 साल बाद भी भोपाल की गलियों में वह रात सांस लेती हुई महसूस होती है।
अस्पतालों में आज भी गैस पीड़ितों की अलग कतारें होती हैं।
हर साल 3 दिसंबर को हजारों लोग मोमबत्ती जलाकर अपने प्रियजनों को याद करते हैं।
गैस पीड़ित कॉलोनी में आज भी लोग दमा, आंखों में जलन, सांस की कमी और कैंसर से जूझ रहे हैं।
जो बच्चे आज बड़े हो चुकी हैं, वे उस रात को याद कर कहते हैं “हमने चीखों की आवाज में अपना बचपन बिताया।”
इतिहास का वह घाव जो आज भी ताज़ा है
भोपाल गैस त्रासदी सिर्फ एक दुर्घटना नहीं थी, यह करोड़ों भारतीयों के विश्वास, सुरक्षा और मानवाधिकारों पर किया गया सबसे घातक प्रहार था। यह मानव इतिहास का सबसे बड़ा औद्योगिक अपराध है, जिसका बोझ आज भी भोपाल के लोगों के फेफड़ों, दिमाग और दिलों पर है।
आज जब हम 41 साल बाद उस रात को याद करते हैं, तो यह प्रश्न फिर उभरता है
क्या वास्तव में न्याय मिला?
क्या लापरवाही के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा हुई?
क्या पीड़ितों की अगली पीढ़ियां सुरक्षित हैं?
दुर्भाग्य से इन सभी सवालों का जवाब अब भी ‘नहीं’ है।
फिर भी उम्मीद बाकी है कि इस त्रासदी को याद रखना, इसके सबक को दोहराना और नई पीढ़ी को इसके सच से परिचित कराना हमें भविष्य में ऐसी किसी भी दुर्घटना से बचाने में मदद करेगा।
यह घाव आज भी ताज़ा है, और शायद आने वाली पीढ़ियों तक ऐसा ही बना रहेगाजब तक कि हम व्यवस्था, उद्योग और न्याय के बीच संतुलन स्थापित न कर पाएं।

