सरकारी ‘डिजिटल साथी ’हमेशा साथ, कभी आपकी मर्ज़ी से नहीं

 

 

संचार साथी के सहारे अब आपकी सांसें भी सरकार-ए-सेफ्टी के हवाले

✍️प्रेरणा गौतम

सुरक्षा यह शब्द भारत में अब सिर्फ डिक्शनरी में मासूम मिलता है। राजनीति में आते ही इसका अर्थ बदल जाता है: “आपकी ज़िंदगी में सरकार कितनी गहराई तक घुस सकती है?” और जब से सुरक्षा की यह परिभाषा प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में लोकप्रिय हुई है, तब से देश की सामूहिक धड़कनें ही नहीं, दिमाग़ का तापमान भी बढ़ गया है।

कहते हैं कि सुरक्षा हमारी प्राथमिकता है।
किसकी?
आपकी?
नहीं साहब, आपकी सुरक्षा की आड़ में आपकी निजता का हनन है, आज़ादी और स्वायत्तता की सुरक्षा को “सेफ मोड” में डाल दिया गया है।

पहले आया आरोग्य सेतु फिजिकल सेफ्टी की एंबुलेंस।
फिर डिजियात्रा, आपकी ट्रैवल सेफ्टी का डिजिटल चौकीदार।
उसके बाद संचार साथी, जो साइबर सेफ्टी का अंगरक्षक बनकर चुपचाप आपके जेब के अंदर घुसने को तैयार है।
इधर इथेनॉल, आपके इंजन की सेफ्टी।
और SIR, आपकी वोट सेफ्टी का प्रहरी।
ऊपर से बोनस नोटबंदी, जो इकोनॉमिक सेफ्टी के नाम पर आपके जेब की स्वतंत्रता को शहीद कर गई।

अब यह संपूर्ण सेफ्टी आर्किटेक्चर देखकर ऐसा लगता है मानो मोदी युग में भारत एक देश कम और एक “पूर्ण-सेफ्टी-प्रमाणित निरीक्षण केंद्र” ज्यादा हो गया है।
जहाँ हर नागरिक एक फाइल है, और हर फाइल एक डेटा पॉइंट।

सरकार कहती है “हर घर मोदी”
और यह नारा धीरे-धीरे बदलकर हो गया है “हर फोन मोदी, हर सांस मोदी”।

कहते हैं कि संचार साथी ऐप आपकी साइबर सुरक्षा के लिए है।
अब यह भी तकनीक का कमाल देखिए कि साइबर सुरक्षा के नाम पर आपके फोन की हर हलचल, हर कॉल, हर संदेश, हर लोकेशन, हर आदत को कितना “नज़दीक से” देखा जा सकता है।
किसी को साथी चाहिए, किसी को दोस्त, किसी को हमराज़।
लेकिन सरकार ने सोचा क्यों न हम सबको एक ऐसा डिजिटल साथी दे दें जो हमेशा साथ रहे, जहाँ आप चाहें वहाँ भी और जहाँ बिल्कुल भी न चाहें वहाँ भी?

अब कह दिया गया है
“मियां, बीवी और संचार साथी।”
क्योंकि साथी वही सच्चा जो आपकी जानकारी आपको बताए बग़ैर सरकार को बता दे।

एक निःशुल्क साथी
जो आप सोए हों तब भी जागा रहे,
आप बात कर रहे हों तब भी रिकॉर्ड रखे,
आप किससे मिले, किससे बचे, किससे डरे सबका हिसाब रखे।
कहते हैं यह एप आपके लिए है।
आपकी सुरक्षा के लिए।
लेकिन इतना सुरक्षा कवच तो रामायण में हनुमान जी को भी नहीं मिला था जितना आज एक आम नागरिक को मिल रहा है।

अजीब संयोग है
जहाँ-जहाँ सुरक्षा का नारा आया,
वहीं-वहीं संकट बढ़ा।

नोटबंदी से पहले भी लोग सुरक्षित थे,
नोटबंदी के बाद भी सुरक्षित ही हो गए बस पैसों की सुरक्षा नहीं बची।

आरोग्य सेतु आया तो लोगों की बीमारी कम और डेटा का ट्रैफिक ज्यादा बढ़ा।

डिजियात्रा आया तो यात्राएँ तेज़ कम और सर्विलांस तेज़ ज्यादा हुआ।

अब संचार साथी आया है
और लगता है कि फोन अब हमारी जेब में नहीं,
हम फोन की जेब में रहेंगे।

भक्तजन इसे भी दिव्य वरदान बताएँगे
कहेंगे, “मोदीजी हम पर निगाह रख रहे हैं, यह तो हम सबके लिए गर्व की बात है।”
लेकिन यह निगाह कितनी मातृवत है और कितनी मातहत यह समझने का काम जनता का है।

मोदीजी पहले ही कह चुके हैं “घर-घर मोदी”
लोगों ने सोचा था यह राजनीतिक उत्साह है।
पर अब समझ में आ रहा है कि यह एक “ऑपरेटिंग सिस्टम अपडेट” की तरह था
धीरे-धीरे आपके फोन में, आपके डेटा में, आपके रोज़मर्रा में, आपकी सांसों में जगह बनाने की तैयारी।

अगले चरण में शायद सरकार यह भी घोषित कर दे
“आप कितनी सांस लें और कितनी छोड़ें”
उसका भी हिसाब एक ऐप दे देगा।

और भला क्यों न दे?
सांस तो जनता की है,
लेकिन उसकी गिनती सरकार की सुरक्षा नीति का हिस्सा बनती जा रही है।

यह लेख किसी ऐप के खिलाफ नहीं,
बल्कि उस सोच के खिलाफ है जिसमें “नागरिक”, “डेटा यूनिट” बन जाता है,
और “लोकतंत्र”, “डिजिटल अनुशासन”।

सुरक्षा ज़रूरी है मगर सुरक्षा के नाम पर निगरानी को सामान्य बना देना लोकतंत्र की सबसे खतरनाक बीमारी है।

अगर समय रहते भी आंख न खुले तो बेकार है ।
और भक्तों को यह समझना होगा कि भगवान भी दूरी से पूजे जाते हैं,
बहुत ज़्यादा नज़दीकी में तो देवता भी डरावने लग सकते हैं।

 

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