*कचरे से रोटी चुनती “लाड़ली” और ग्वाल पुत्र की घोषणाओं का स्वर्ण युग…?*

✍️ राजेन्द्र सिंह जादौन
राज्य की सड़क पर बैठी वो बहन शायद सरकार के “लाड़ली” अभियान की सबसे सटीक तस्वीर है। उसके हाथ में रोटी नहीं, कचरे का टुकड़ा है। चेहरे पर भूख की लकीरें हैं और कपड़ों पर गरीबी का इतिहास। वो रोटी बीन रही है, शायद कल का बचा हुआ खाना तलाश रही है, जो किसी और की थाली से गिरा था। और उधर, राजधानी में मंच पर खड़े मुख्यमंत्री गर्व से कह रहे हैं “मैं लाड़ली बहनों को 1500 रुपए दूँगा।”
कितनी अजीब विडंबना है ना एक ओर घोषणा का शोर, और दूसरी ओर पेट की भूख का सन्नाटा।
प्रदेश में तस्वीरें दो हैं, पर कहानी एक ही है “कागज़ पर विकास, ज़मीन पर निराशा।”
कहीं बच्चे स्कूल में कागज़ की थाली पर मध्यान्ह भोजन खा रहे हैं, क्योंकि प्लेटें खरीदी नहीं गईं या किसी अफसर की फाइल में अटक गईं। और वहीं दूसरी तस्वीर में एक बहन सड़क किनारे कचरे से खाना चुन रही है। ये तस्वीर किसी एक गाँव या शहर की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की है जो फाइलों में चमकती है और ज़मीन पर दम तोड़ती है।
मुख्यमंत्री मोहन यादव, जो स्वयं को “ग्वाल पुत्र” कहकर जनता का स्नेह पाना चाहते हैं, शायद भूल गए हैं कि गाय को चराना और जनता को बहलाना दोनों में फर्क है। गाय अगर भूखी रहती है, तो दूध नहीं देती। और जनता अगर भूखी रहती है, तो विश्वास नहीं देती।
सरकार की योजनाएँ अब भाषणों में ज्यादा और ज़मीन पर कम दिखती हैं। “लाड़ली बहना” योजना में करोड़ों खर्च दिखाए जाते हैं, लेकिन इस बहन तक वो एक रुपए भी नहीं पहुँचते, जो कचरे के ढेर से रोटी ढूंढ रही है। मुख्यमंत्री जी, ये बताइए अगर उसे 1500 मिलने थे, तो उसके हिस्से के 1200 किसके पेट में चले गए?
प्रदेश में प्रशासन अब संवेदना नहीं, प्रचार से चलता है। गरीब की रोटी अब सरकारी विज्ञापन का हिस्सा बन गई है। जनसम्पर्क विभाग फोटो जारी करता है “मुख्यमंत्री ने बहनों से संवाद किया”, “सीएम ने खाया गरीबों के संग भोजन”, लेकिन सड़क पर बैठी वो बहन कभी इन तस्वीरों का हिस्सा नहीं बनती। क्योंकि उसके आसपास कोई कैमरा नहीं होता, बस बदबू, भूख और बेबसी होती है।
सरकार को लगता है कि राशन कार्ड, योजना प्रमाणपत्र और आधार लिंक से गरीबी मिट जाएगी। लेकिन गरीबी कागज़ पर नहीं, पेट में होती है। और जब तक पेट खाली रहेगा, हर योजना झूठी लगेगी।
मोहन यादव का शासन शायद ये मान बैठा है कि जनता को बस उत्सव चाहिए कभी “लाड़ली उत्सव”, कभी “विकास पर्व”, कभी “सेवा सप्ताह”। लेकिन क्या भूख भी उत्सव की तरह टाली जा सकती है? क्या रोटी की ज़रूरत को भाषणों में ताली से भरा जा सकता है?
प्रदेश के गाँवों में जब कोई बच्चा भूख से बिलखता है, तो शायद उसकी आवाज़ माइक तक नहीं पहुँचती। वहाँ तक पहुँचता है बस सरकारी बयान “सबको भोजन, सबको सम्मान।”
लेकिन ये सम्मान कहाँ है? उस कचरे के ढेर में जहाँ से इंसान अपना पेट भर रहा है? या उस भाषण में, जहाँ नेता घोषणा करते हैं कि प्रदेश में कोई भूखा नहीं सोता?
असलियत यह है कि हमारी व्यवस्था अब मनुष्यता से ज़्यादा प्रेजेंटेशन पर चलती है। योजनाएँ एक्सेल शीट पर बनती हैं, धरातल पर नहीं। नेता को कैमरे के सामने गरीब चाहिए, कैमरे के बाद नहीं। और मीडिया को वो खबर चाहिए जो टीआरपी दे न कि वो तस्वीर जो सिस्टम का आईना दिखाए।
आज प्रदेश में विकास की परिभाषा बदल चुकी है।
यहाँ अब भूख फोटो में नहीं दिखती, सिर्फ नारे में सुनाई देती है। “लाड़ली बहन” अब आँकड़ा बन चुकी है, इंसान नहीं।और “ग्वाल पुत्र” अब गाय नहीं, जनता को चरा रहा है वादों, घोषणाओं और भाषणों के चारागाह में।
मुख्यमंत्री जी, अगर आपके राज्य में कोई बहन कचरे से रोटी चुन रही है, तो ये सिर्फ उसकी गरीबी नहीं, शासन की विफलता है। आप कह सकते हैं कि “वो अपवाद है”, लेकिन सच ये है कि ये अपवाद अब आम हो चुका है।
आपकी योजनाएँ अगर ईमानदार हैं, तो उस बहन का पेट क्यों खाली है? आपका सिस्टम अगर संवेदनशील है, तो उसके हाथों में रोटी क्यों नहीं है?
सरकार चाहें तो अगले उत्सव का नाम रख दे “लाड़ली बहन भूख मुक्त अभियान”, पर उससे पहले ज़मीन पर उतरकर देखिए कि आपकी योजनाओं की रोटी कहाँ टूट रही है।
क्योंकि तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं और ये तस्वीर बता रही है कि प्रदेश में भूख अब कचरे से रोटी खोज रही है, और सरकार उसे कैमरे से ढक रही है।

