देहरादून के दून का एजुकेशन सिस्टम सड़ रहा है?
✍️ राजेन्द्र सिंह जादौन

देहरादून यह नाम कभी शिक्षा, अनुशासन और प्रतिष्ठा का पर्याय माना जाता था। दून स्कूलों में पढ़ना सिर्फ़ पढ़ाई नहीं, एक पहचान हुआ करती थी। पूरे उत्तर भारत से लेकर देश-विदेश तक, अभिभावक अपने बच्चों को यहाँ भेजने के लिए संघर्ष करते थे, कर्ज लेते थे, यहाँ तक कि अपनी जमीन भी बेच देते थे ताकि उनके बच्चों को “दून की पढ़ाई” का टैग मिल सके। पर आज वही दून एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ इसकी शिक्षा व्यवस्था अपनी नींव से सड़ती दिख रही है। यह गिरावट अचानक नहीं आई; यह धीरे-धीरे, सालों की लापरवाही, सिस्टम की मक्कारी और सत्ता की मौन सहमति से पैदा हुई है। और आज हालत यह है कि देहरादून का एजुकेशन सिस्टम पढ़ाई की बजाय नशे, सट्टेबाजी, भाईगिरी और भ्रष्टाचार का केंद्र बनता जा रहा है, जहाँ पढ़ाई अंतिम विकल्प और मौज-मस्ती प्राथमिक लक्ष्य हो गई है।
आज दून के कई नामी-गिरामी स्कूलों और कॉलेजों की हालत ऐसी हो चुकी है कि पहली नज़र में वे शिक्षा संस्थान कम और एंटरटेनमेंट हब ज़्यादा लगने लगे हैं। फीस में कट्टर बढ़ोतरी, एडमिशन के नाम पर मनमानी, और हॉस्टलों में बढ़ते अवैध नेटवर्क, सब एक ही दिशा की ओर इशारा करते हैं सिस्टम अब पैसे पर चलता है, मेरिट पर नहीं। पहले जहाँ छात्र सुबह सुबह लाइब्रेरी जाने का गर्व महसूस करते थे, आज वही छात्र देर रात नाइट-लाइफ वाली पार्टियों की वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करना बड़ी उपलब्धि मानते हैं। पिछले कुछ वर्षों में देहरादून की पढ़ाई की इमेज बदलकर एक ऐसे शहर की बन गई है, जहाँ पढ़ाई एक बहाना है और बचकानी विलासिता असली उद्देश्य।
सबसे बड़ी चिंता यह है कि नशे का जाल देहरादून के कैंपसों में किस गति से फैल रहा है। पर्वतीय राज्य उत्तराखंड हमेशा शांत और संस्कारी युवाओं का सूक्ष्म चेहरा माना जाता था, पर आज दून में जिस तरह नशे की सप्लाई चल रही है, वह पूरे राज्य की इमेज को धूमिल करने के लिए काफी है। हॉस्टलों में रात के समय खुलने वाली गुप्त खिड़कियाँ और बैकडोर से चलने वाला सामान इतना सामान्य हो चुका है कि छात्रों को अब नशा उपलब्ध होने में उतना समय नहीं लगता जितना लाइब्रेरी की किताब मिलने में लगता है। सडकों के किनारे खड़े पायरेसी स्टॉल नहीं, अब “माल के ठिकाने” मिल जाते हैं, और यह सब स्थानीय नेतृत्व और अधिकारियों की निगरानी में नहीं, बल्कि उनकी अनदेखी में खुलेआम चलता है।
दरअसल, समस्या सिर्फ़ छात्रों की नहीं है; समस्या उससे बड़ी है सिस्टम को चलाने वाले लोगों की। देहरादून में पढ़ने वाले कई बड़े नेताओं, अफसरों और प्रभावशाली परिवारों के बच्चे इस पूरे गंदे खेल का केंद्र बन चुके हैं। पिता की अवैध और बेनामी कमाई यहाँ उनके बच्चों के लिए “ट्रेंड-बुक्स” की तरह उपलब्ध रहती है। जहाँ कोई आम छात्र संघर्ष करके हॉस्टल फीस भरता है, वहीं कुछ रसूखदार बच्चे नशे की पार्टियों में पाँच-पाँच लाख की बोतलें खोलकर “फन टाइम” मनाते हैं। यह उनका निजी जीवन नहीं, यह एक सामाजिक अपराध है जिसे छुपाने के लिए पूरा सिस्टम झुक जाता है। न पुलिस देखने को तैयार है, न कॉलेज प्रशासन बोलने को तैयार है, न सरकार इस गड़बड़ी को गंभीरता से लेना चाहती है।
देहरादून में आज युवाओं की प्राथमिकता पढ़ाई से हटकर दिखावे और शॉर्टकट की ओर ज़्यादा झुक चुकी है। भारी-भरकम कारों में घूमते किशोर, बिना हेलमेट दौड़ती superbikes, और आधी रात को सड़कों पर रेस लगाना यह सब दून की “नई पहचान” बन रहा है। यह जानना चौंकाने वाला है कि इन बच्चों की उम्र 17 से 22 के बीच होती है, और इनमें से ज्यादातर अपने परिवार की शक्ति और पहचान के दम पर खुलेआम नियम तोड़ते घूमते हैं। कई बार जब पुलिस पकड़ती भी है, तो एक फोन कॉल में पूरा मामला खत्म हो जाता है। यही वह जगह है जहाँ दून की शिक्षा व्यवस्था का पतन शुरू होता है जब बच्चों को बचपन में यह सीख दी जाती है कि नियम उनके लिए नहीं बने हैं।
दून के स्कूल-कॉलेजों में ऑनलाइन सट्टेबाजी का जाल भी तेजी से फैल रहा है। क्रिकेट मैचों से लेकर कसीनो एप्स तक, हर तरह की गैरकानूनी गतिविधियों का रास्ता छात्रों के मोबाइल तक पहुँच चुका है। कई कॉलेजों के बाहर कुछ खास समूह इन्हें जोड़ने का काम करते हैं। कई छात्रों के खातों में अचानक आने वाले हज़ारों-लाखों रुपये उनकी आदतों और उनके दोस्तों की मंडली को साफ बयान करते हैं। यह सिर्फ़ नशा या सट्टा नहीं, यह एक पूरी पीढ़ी का मानसिक पतन है जिसके परिणाम आने वाले वर्षों में बहुत भयावह साबित हो सकते हैं।
सबसे दुखद यह है कि शिक्षा का असली मॉडल खत्म हो चुका है। जिस दून ने भारत को डॉक्टर, वैज्ञानिक, लेखक और प्रशासनिक अधिकारी दिए थे, आज वही दून ऐसे युवाओं से भर रहा है जिनके लिए शिक्षा सिर्फ़ डिग्री पाने का साधन है ज्ञान का नहीं। शिक्षक अब एक सम्मानित मार्गदर्शक नहीं, बस एक वेतनभोगी कर्मचारी बनकर रह गए हैं, जिन्हें छात्रों के घर के रसूख और प्रशासन की राजनीति के बीच चुप रहना पड़ता है। आज कई शिक्षक हॉस्टल में होने वाली गड़बड़ियों की शिकायत भी नहीं करते, क्योंकि उन्हें डर रहता है कि उनके खिलाफ कार्रवाई हो जाएगी। दून में शिक्षा का वातावरण अब डर और दबाव के बीच साँस ले रहा है।
अगर दून का यह हाल कुछ और वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब देहरादून “शिक्षा के शहर” की अपनी पहचान पूरी तरह खो देगा। यह शहर किसी ऊँचे आदर्श पर नहीं खड़ा हुआ था; यह अपनी सभ्यता, अपने अनुशासन और अपनी शैक्षणिक उत्कृष्टता की वजह से चमका था। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि दून अपनी पहचान खोता जा रहा है और उसकी जगह एक ऐसा शहर बनता जा रहा है जहाँ पैसे की चमक ज्ञान की रोशनी को निगल रही है। सरकार की ढिलाई, प्रशासन की अनदेखी और अभिभावकों की गलत परवरिश ने मिलकर एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया है जिसकी कीमत आने वाली पीढ़ियाँ चुकाएँगी।
अब दून के सामने दो ही रास्ते बचे हैं या तो यह शिक्षा का असली अर्थ वापस खोजे, या फिर यह स्वीकार कर ले कि यह अब एक पतनशील शहर बन चुका है जहाँ स्कूल-कॉलेज सिर्फ़ नाम के लिए हैं और असली खेल सिस्टम के परदे के पीछे चलता है। सवाल यह है कि इस शहर को बचाने की कोशिश कौन करेगा? क्या कोई नेता आगे आएगा? क्या कोई अधिकारी अपने बच्चे से ज़्यादा प्रदेश की प्रतिष्ठा को महत्व देगा? क्या कोई अभिभावक अपने बच्चे को गलत रास्ते से रोकने की हिम्मत करेगा?
जब तक दून इन सवालों का जवाब नहीं ढूँढता, तब तक इसकी शिक्षा व्यवस्था सड़ती ही रहेगी और यह शहर धीरे-धीरे अपनी चमक खोकर एक चेतावनी की कहानी बन जाएगा एक ऐसी कहानी कि कैसे लापरवाही और लालच ने एक शिक्षा नगरी को नशे और भ्रष्टाचार की अंधेरी घाटी में धकेल दिया।

