✍️राकेश अचल –
सिनेमा मनोरंजक भी है और प्रेरक भी. सामाजिक भी है और राजनीतिक भी. कांग्रेसी भी है और भाजपाई भी. सांप्रदायिक भी है और धर्मनिरपेक्ष भी. हिंसक भी है और गांधीवादी भी. यानि भारतीय सिनेमा सबके लिए काम करता है किंतु भारत के गिने चुने फिल्म निर. माता, निर्देशक, और अभिनेता तथा अभिनेत्रियां ऐसी भी हैं जो गोदी मीडिया की तरह केलल और केवल प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के लिए काम करते हैं
विवेक अग्निहोत्री का नाम मोदी भक्तों में सबसे ऊपर है. विवेक ने फिल्मों के जरिये मोदी जी की मदद के लिए पिछले एक दशक में इतनी फाइलें खोलीं हैं कि भारतीय सिने दर्शक उनसे बिदकने लगा है. विवेक अग्निहोत्री की नयी ‘फाइल् का नाम है सीरीज की ‘द बंगाल फाइल्स’ जो बीते रोज सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है।
आपको पता है कि पश्चिम बंगाल में तृण मूल कांग्रेस का तख्ता पलटने के लिए मोदी सेना लगातार प्रयास कर रही है लेकिन फतह हासिल नहीं कर पा रही. आप कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल भाजपा की, मोदीजी की दुखती रग है. मोदीजी के दुख को कम करने के लिए ही विवेक अग्निहोत्री ने एक बार फिर फिल्म का इस्तेमाल औजार की तरह किया है.फिल्म रिलीज से पहले ही तमाम तरह की चर्चाओं और विवादों का हिस्सा बन चुकी है।
डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री की ये फिल्म भारत और पाकिस्तान के बंटवारे से पहले बंगाल में हुए डायरेक्ट एक्शन डे की कहानी है. साथ ही इसमें नोआखली में हुए दंगों को भी दिखाया गया है. मुस्लिम लीग के मुखिया मोहम्मद अली जिन्ना अपना अलग मुल्क चाहते थे, जिसका नाम हो पाकिस्तान. वो चाहते थे कि भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया जाए, जहां सब एक धर्म को माने और रहें. साथ ही जिन्ना की मांग थी कि बंगाल को उन्हें दिया जाए. गांधी और कॉन्ग्रेस पार्टी इस मांग के खिलाफ थी. ऐसे में उन्होंने 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन डे का ऐलान किया. इसके चलते शहरभर में आंदोलन शुरू हुआ, जो आगे चलकर नरसंहार में बदल गया था.
कल और आज के भारत को दिखाती है फिल्म
फिल्म की कहानी की शुरुआत आजादी के 78 साल बाद के भारत में होती है. यहां दिल्ली में सीबीआई के चीफ राजेश सिंह (पुनीत इस्सर), आईपीएस अफसर शिवा पंडित (दर्शन कुमार) को एक दलित लड़की के अगवा होने का केस सौंपते हैं. ये मामला बंगाल के मुर्शिदाबाद का है. गायब हुई लड़की का नाम गीत मंडल है. इस मामले में मुख्य संदिग्ध दो लोग हैं, एक बुढ़िया भारती बनर्जी (पल्लवी) और मुर्शिदाबाद का एमएलए सरदार हुसैनी (शाश्वत चटर्जी). भारती से मुलाकात पर शिवा को पता चलता है कि इसे डिमेंशिया है. भारती अपनी उम्र और बीमारी के चलते ज्यादा बात नहीं कर सकती, लेकिन उसके पास कहने को बहुत कुछ है. वहीं हुसैनी जितना दिखता है, उतना ही कमीना है. बांग्लादेश से गैर-कानूनी रूप से शरणार्थियों को अपने देश में घुसाने, बसाने और उनसे अपना वोट बैंक बनाने के लिए हुसैनी को जाना जाता है.
फिल्म की कहानी डायरेक्ट एक्शन डे और आज के भारत के बीच आगे-पीछे चलती है. उस जमाने में आप यंग भारती बनर्जी (सिमरत कौर) को देखते हैं, जो एक चुलबुली लड़की हुआ करती थी और बाद में स्वतंत्रता सैनानी बनी. डायरेक्ट एक्शन डे के हमलों में भारती ने अपने पिता जस्टिस बनर्जी (प्रियांशु चटर्जी) और मां दोनों को खो दिया. इसी दौरान उसकी मुलाकात अमरजीत अरोड़ा (एकलव्य सूद) से हुई. दोनों मिलकर किसी तरह अपनी जान बचाते हैं और अपने आसपास लोगों की जान जाते देखते हैं. कुछ वक्त के बाद भारती, नोआखली में अपने काका और हिंदू महासभा के सदस्य रॉय चौधरी (दिव्येंदु भट्टाचार्य) पास चली जाती है. लेकिन वहां भी उसे यही सब देखना पड़ता है.
विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक हिंसा ही हिंसा है. ज्यादा से ज्यादा खून-खराबा और मारकाट दिखाना ही मानो विवेक का मकसद था. फिल्म में खून और मारकाट ज्यादा दिखाना, और कम बातें कहना ही शायद विवेक का अपना अंदाज है. फिल्म में आपको क्या नहीं देखने को मिलता. आप इसमें बच्चों को गोली खाते, लोगों के मुंह को सीवरों के ढक्कन से कुचलते, बच्चों के चेहरे पर गर्म प्रेस लटकाकर लोगों को धमकाते और एक शख्स को बीच से आधा कटते देखते हैं. किरदारों को बीच से काटना विवेक अग्निहोत्री की पसंदीदा चीज है. ऐसा ही एक सीन उन्होंने अपनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में भी रखा था.
फिल्म में इतनी दंगई और ट्रिगर करने वाले सीन है कि आपका मन खराब होने लगे,दम घुटने लगे, मगर हिंसा का अंत नहीं होता. इस हिंसा और खून खराबे को अपने शरीर में मोटी कील की तरह ठोका जाता है, इतनी गहराई तक कि बाहर रहने वाला उसका हिस्सा भी आपके दिमाग में समा जाए. ये सब देखकर आपके मन में सवाल उठता है कि कितनी हिंसा, बहुत ज्यादा हिंसा है?इस फिलम का निशाना बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा कोई दूसरा नहीं है, लेकिन क्या ये फिल्म ममता बनर्जी के खिलाफ घृणा पैदा कर भाजपा की मदद कर पाएगी.
आपको याद होगा कि विवेक अग्निहोत्री हों या अक्षयकुमार हों. परेश रावल हों या किरण कौर के पतिदेव अनुपम खैर हमारे प्रधान जी के प्रिय हैं. विवे अग्निहोत्री को तो बाकायदा हमारी सरकार ने वाय केटेगरी की सुरक्षा दे रखी है. भाजपा के लिए विवेक का सुरक्षित रहना बहुत जरूरी है अन्यथा जब मीडिया विफल हो जाएगा तब भाजपा और मोदीजी के लिए आखिर फिल्में कौन बनाएगा?
आपको याद हो या न हो लेकिन मुझे याद है कि छोटे पर्दे पर काम करने वाले विवेक अग्निहोत्री 2005 में चाकलेट फिल्म के जरिये बडे पर्दे पर आए थे. भाजपा के सत्ता में आने से पहले विवेक ने किसी राज्य की कोई फाइल फिल्म बनाने के लिए नहीं खोली थी. 2016 में ‘दि बुद्धा इन ए ट्रैफिक वार’बनाई लेकिन चली नहीं. 2019में ‘ताशकंद फाइल्स बनाकर उन्हे कुछ दर्शक मिले. लेकिन 2022में ‘दि कश्मीर फाइल्स बनाकर भाजपा और मोदी जी के प्रिय हो गये. मोदीजी ने विवेक को अपने घर बुलाया, उनकी फिल्म की तारीफ की.
विवेक अग्निहोत्री ने काश्मीर के बाद वेक्सीन वार बनाई. उनकी देखा देखी अमनदीप नारंग ने दिल्ली फाइल्स बना डाली. एक केरला स्टोरी भी बनी.लेकिन चाहे विवेक हों या अमरदीप किसी की हिम्मत तीन साल से जल रहे मणिपुर की फाइल्स बनाने की नहीं हुई. किसी ने गुजरात फाइल्स, यूपी फाइल्स नहीं बनाई. बना नहीं सकते. इन फाइलों के बनाने से मोदीजी खुश नहीं होंगे. और राहुल गांधी या उनकी कांग्रेस के पास कोई विवेक अग्निहोत्री या नारंग है नहीं. कोई छावा बनाने वाला भी नहीं है.हमारी शुभकामनायें हैं कि विवेक अग्निहोत्री की मेहनत बर्बाद न जाए. वे इस नयी फिल्म से खूब कमाएं-खाएं. ये बात और है कि इस फिल्म को देखकर भाजपा को बंगाल में कुछ हासिल होगा या नहीं? दि बंगाल फाइल्स के लिए दर्शन कुमार, अनुपम खेर, पल्लवी जोशी, सिमरत कौर, प्रियांशु चटर्जी ने अपना सब कुछ दांव पर लगाया है. भगवान उनकी रक्षा करे. आपके पास समय हो, पैसा हो तो दि बंगाल फाइल्स एक बार अकेले में जरूर देखें. बाद में यदि ठीक समझें तो बीबी बच्चों को भी दिखाएं लेकिन हमारे प्यारे सेंसर बोर्ड से कोई शिकायत न करें.

