
राजेन्द्र सिंह जादौन
हवाएं आजकल बहुत तेज हैं। इतनी तेज कि सड़क किनारे लगा विकास का बोर्ड भी उखड़कर उड़ गया। सरकार ने तुरंत बयान जारी किया “विकास की गति रोकना विपक्ष की साजिश है।” लेकिन जनता को समझ नहीं आया कि विकास बोर्ड पर था या जमीन पर।
विकास अब जमीन पर दिखाई नहीं देता। चुनाव से पहले यह आपके मोहल्ले तक पैदल आता था, आपके दरवाजे पर दस्तक देता था, और हाथ जोड़कर कहता था “आपके आशीर्वाद से आपकी गली में सड़क बनेगी, नाली सुधरेगी, रोजगार आएगा।” लेकिन अब यह सब सिर्फ पुराने भाषणों के वीडियो में मिलता है। असल जिंदगी में विकास तो आजकल आसमान में उड़ रहा है शायद किसी कॉर्पोरेट की चार्टर फ्लाइट में।
बारिश आई, बाढ़ आई और राजनीति तैर गई। गांवों में खेत डूब गए, लेकिन सत्ता के गलियारों में “सेल्फी अभियान” शुरू हो गया। नेता बाढ़ग्रस्त इलाकों का हवाई सर्वे कर रहे हैं। हेलीकॉप्टर में बैठकर ऊपर से हाथ हिलाते हुए फोटो खिंचवाई और नीचे कैप्शन “हम जनता के साथ हैं।” जनता सोच रही है “अगर इतना ही साथ है तो हेलीकॉप्टर से उतरकर एक बार पैर गंदे कर लो।” मगर साहब के जूते की कीमत किसी गरीब की सालाना आमदनी से ज्यादा है, गंदगी सहन नहीं कर सकते।
मीडिया का रोल भी देखिए। एक चैनल पर एंकर चिल्ला रहा है “सरकार ने राहत के लिए करोड़ों खर्च किए, ये है विकास!” वहीं दूसरा चैनल कह रहा है “साहब ने हेलीकॉप्टर से केले फेंककर बाढ़ पीड़ितों की जान बचाई।” जनता सोच रही है “केले नहीं, नाव चाहिए भाई, नाव!” लेकिन चैनल को टीआरपी चाहिए, और टीआरपी के लिए ड्रामा चाहिए। सो वो बाढ़ में फंसे लोगों के बीच जाकर कहता है “आपको कैसा लग रहा है?” मानो आदमी पानी में डूबते हुए कहेगा “भाई, बहुत मजा आ रहा है, अगली बार और पानी भेजना।”
अब बात करते हैं ठेकेदारों की। बरसात उनके लिए “फसल का मौसम” है। जितना पानी, उतना पैसा। क्योंकि हर टूटे हुए पुल, हर बह चुकी सड़क, हर गड्ढे के नाम पर नया टेंडर। गड्ढे जनता को परेशानी देते हैं, लेकिन ठेकेदार को खुशहाली। यही कारण है कि हमारे देश में गड्ढों की आयु पुलों से ज्यादा है। और अगर आप सवाल उठाओ कि सड़क हर साल क्यों बह जाती है, तो ठेकेदार कहता है “प्रकृति से मत लड़ो, साहब। बाढ़ भी लोकतंत्र का हिस्सा है।”
नेता क्या कर रहे हैं? नेता तो इस मौसम में सबसे ज्यादा “पसीना” बहा रहे हैं ट्वीट लिखने में। “हम पीड़ितों के साथ हैं”, “सरकार हर संभव मदद कर रही है”, “विपक्ष सिर्फ आरोप लगा रहा है” यह सब लाइनों की बारिश हो रही है। असल में मदद? हेलीकॉप्टर से चावल के पैकेट गिराकर समझते हैं कि इंसान का पेट भर जाएगा। और अगर पैकेट किसी के सिर पर लग जाए, तो राहत से ज्यादा अनहोनी हो जाती है।
और जनता? जनता इस लोकतंत्र की सबसे बड़ी कॉमेडी है। पानी में डूबते-डूबते भी नारे लगाती है “अगली बार इन्हीं को वोट देंगे, इन्होंने बहुत काम किया।” क्योंकि जनता को विकास का मतलब सिर्फ चुनावी भाषण और नेता के मुस्कुराते हुए पोस्टर से है। उसे लगता है “जो नेता हवाई सर्वे करता है, वो बहुत बड़ा आदमी है।” जनता भूल जाती है कि हवाई सर्वे से सिर्फ फोटो निकलते हैं, राहत नहीं।
अब ज़रा राजनीतिक पार्टियों की राजनीति देखिए। बारिश और बाढ़ पर भी दलों की अपनी विचारधारा है। एक पार्टी कहती है “ये भगवान का कोप है, क्योंकि विपक्ष भ्रष्ट है।” दूसरी कहती है “नहीं, ये सरकार की नाकामी है।” और तीसरी पार्टी, जो हमेशा ‘हम भी हैं’ वाली होती है, कहती है “हम आएंगे तो पानी भी हमारे हिसाब से गिरेगा।”
सबसे मजेदार चीज़ घोषणाएं। हर बाढ़ के बाद घोषणा होती है “हम मजबूत बांध बनाएंगे।” हर सड़क टूटने के बाद घोषणा “हम चार लेन वाली सड़क देंगे।” और हर चुनाव के बाद घोषणा “हम जनता के सेवक हैं।” लेकिन असलियत यह है कि सेवक तो जनता बनती है लाइन में लगने के लिए, चंदा देने के लिए, वोट देने के लिए। नेता सिर्फ मालिक है सत्ता का, बजट का और जनता की उम्मीदों का।
हवाएं तेज हैं, विकास उड़ रहा है, बारिश में राजनीति तैर रही है… और जनता? जनता डूब रही है। पर डूबते-डूबते भी ताली बजा रही है, नारे लगा रही है, और अगले चुनाव का इंतजार कर रही है। क्योंकि इस देश में सबसे बड़ा त्योहार चुनाव है जिसमें वादों की बरसात होती है, घोषणाओं की बाढ़ आती है, और जनता फिर से गड्ढों में नहाती है।

