अटल जी की ज्योति औऱ अडाणी का खेल ?
प्रेरणा गौतम
(लेखिका एक अधिमान्य पत्रकार है साथ ही अंतिम खबर की संपादक है और साइबर लॉयर है ?)
कहते हैं, भारत अब विश्वगुरु बनने जा रहा है। चाँद पर तिरंगा लहरा चुका है, डिजिटल इंडिया मोबाइल स्क्रीन पर दमक रहा है और अर्थव्यवस्था निवेशकों की तालियों में झूम रही है। मगर इस बीच एक मामूली-सा सवाल हर घर में अंधेरे के साथ मुँह बाए खड़ा है “बल्ब कब जलेगा?”

बिजली का बिल हर महीने धर्मनिष्ठ ब्राह्मण की तरह समय पर प्रकट हो जाता है। पर सप्लाई? वह तो तपस्वी साधु की तरह मौन साधे बैठी रहती है। मीटर की रफ्तार ऐसी कि मानो ओलंपिक धावक उसे देखकर रिटायर हो जाए, लेकिन पंखा, फ्रिज और टीवी सब हाथ जोड़कर खड़े “हमें तो करंट का एक घूँट पिला दो।”
अब जनता का तंज़ भी खासा व्यंग्यपूर्ण है। लोग कहते हैं“माय डियर फ्रेंड नरेंद्र, यह आपका निजी मामला है। अडानी का मीटर आपकी दोस्ती की तरह तेज़ है और सप्लाई आपकी सरकार के वादों की तरह सुस्त।”
जहाँ कॉर्पोरेट ठेका है, वहाँ बिजली का लोकतंत्र भी ‘वीआईपी पास’ से चलता है। अमीर मोहल्लों में ऐसी दहाड़ता है, झूमर जगमगाते हैं। वहीं गरीब बस्तियों में अब भी मोमबत्ती ही लोकतंत्र की असली रोशनी है। जनता कहती है “साहब, हमें 15 रुपए की मोमबत्ती जला दो, मगर 1500 रुपए का बिल मत भेजो।”
विडंबना यह है कि राष्ट्र की शाश्वत ज्योति अटल जी की अमर ज्योति भी डरती है कि कॉर्पोरेट की एक हल्की फूंक से कहीं बुझ न जाए। सप्लाई इतनी ‘अनियमित’ है कि दीपावली पर भी लोग बिजली से ज्यादा मोबाइल टॉर्च जलाकर खुशियाँ मना रहे हैं।
जनता का हाल बयान करने के लिए नारे खुद-ब-खुद जन्म लेते हैं
“मीटर भागे चीते-सा, बल्ब जले कबूतर-सा।”
“बिल में विकास, घर में अंधकार।”
“अटल ज्योति अमर रहे, पर अडानी की फूंक न मरे।”
अंततः यही सच है—सरकार कहती है, “सभी को रोशनी देंगे।”
कंपनी कहती है, “सभी को बिल देंगे।” मीटर कहता है, “मैं तो बिना सप्लाई के भी दौड़ूँगा।”
और बल्ब… बुझा हुआ बल्ब है, वह क्या बोलेगा?
तो सवाल वही है—यह कौन-सा विकास है जहाँ मीटर मोटर रेस जीत रहा है और घर का बल्ब हर बार हार रहा है?

