जहाँ जनता जलजमाव से जूझ रही है, वहाँ नेता गाली-जमाव से खेल रहे हैं
प्रेरणा गौतम –

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देश पानी-पानी है। सड़कों पर नाव चलाने का वक्त आ गया है, गली-मोहल्लों में बच्चे तैरना सीख रहे हैं और घरों में लोग बाल्टी से पानी निकालते-निकालते बूढ़े हो रहे हैं। ये नज़ारा देखकर विकास चीख-चीखकर कह रहा है
“लो, मैं आ गया हूँ तुम्हारे सामने! मुझे पहचान , मैं हूँ विकास वरना कल मेरी तलाश में मशालें लेकर घूमते रहोगे।” और तब मैं विकास से विनाश में परिवर्तित हो जाऊंगा?
लेकिन जनता की किस्मत देखिए जहां उसकी आँखों के सामने घर, दुकानें और ज़िंदगियाँ बह रही हैं, वहीं सत्ता के गलियारों में महान मुद्दा ये है कि किसने किसकी माँ को गाली दी।
वाह रे लोकतंत्र देश डूब रहा है और हमारे नेता गाली की नौका पर बहस चला रहे हैं।

जनता पूछना चाहती है ?
“साहब, अगर माँ को गाली देना ही राष्ट्रीय मुद्दा है, तो फिर इन नालियों को किसने गाली दी, जो सालों से साफ होने का नाम नहीं लेतीं? इन टूटी सड़कों को किसने गाली दी, जो हर बारिश में तालाब बन जाती हैं? और इस बेहाल आम आदमी को किसने गाली दी, जिसे विकास का झुनझुना दिखाकर वोट लिया गया?”
अब ज़रा मीडिया की तरफ देखिए
देश के पहाड़ी इलाक़ों में लोग चीख-चीखकर मदद माँग रहे हैं। कहीं घर पहाड़ के साथ ढह रहे हैं, कहीं लोग अपने ही आँगन में दफ़न हो रहे हैं। ज़िंदगियाँ मलबे में दबकर आख़िरी सांस गिन रही हैं।
लेकिन देश के चौथे स्तंभ की दुकानों में सबसे ज़्यादा भीड़ उस “गाली” पर है, जो एक नेता ने दूसरे को दी।
टीवी स्क्रीन पर जलजमाव की जगह गाली का रिप्ले चल रहा है। एंकर ऐसी उत्तेजना में चीख रहे हैं जैसे देश की सीमाओं पर युद्ध हो रहा हो,पर असल में युद्ध तो जनता अपने घर में पानी से लड़ रही है।
मीडिया जनता की तकलीफ़ नहीं दिखाता, क्योंकि उसमें टीआरपी नहीं है। टीआरपी है नेताओं की चीख, गाली का मसाला और जनता की भावनाओं का तमाशा में, ऐसे में कौन मौका हाथ से जाने दे?
असलियत ये है कि जनता की तकलीफ़ का कोई खरीदार नहीं। सत्ता को बस इतना करना है अराजकता फैला दो, लोगों को गाली-बहस में उलझा दो, और मीडिया उसे ऐसे परोसे जैसे यही असली मुद्दा हो। ये देश का विकास नही,विनाश है। शायद बोलना था विनाश होगा गलती से बोल दिया गया विकास होगा, जनता ने ही लगता है गलत सुन्न लिया है।
नेताओं को शायद पता भी नहीं कि देश के शहर अब स्मार्ट सिटी से ज्यादा स्विमिंग पूल सिटी बनते जा रहे हैं। फर्क बस इतना है कि पूल में लोग मज़े से कूदते हैं और इन सड़कों पर लोग मजबूरी से तैरते हैं। क्योंकि उनकी कोई सुनने वाला नही है,और न ही उन बेजुबान जानवरों की इनके पक्ष में तो कभी न्याय हुआ ही नही
और मीडिया?
वह बस यह बताने में लगा है कि किसने गाली दी और किसने ज्यादा ज़ोर से सुनी।
लगता है कि इस देश में अब नालों की सफाई से ज़्यादा ज़रूरी नेताओं की ज़बान और मीडिया की दुकानों की सफाई हो गई है।

