राजेन्द्र सिंह जादौन
“सर, आपका फोन नंबर और घर का पता दे दीजिए।” यह सवाल किसी बैंक मैनेजर ने नहीं, एक पीआरओ मित्र ने किया था।
फोन नंबर दे दिया, पर जैसे ही उसने तीसरी बार जोर देकर कहा
“घर का पता भी दे दीजिए।”
मैं मुस्कुराया और जवाब दिया “भाई, घर होगा तो पता दूंगा। घर है ही नहीं। हाँ, पोस्टल एड्रेस जरूर है।”
बस यही है हमारी हकीकत।
घर… जो हर कोई चाहता है, पर हर किसी को मिलता नहीं।
सरकारें कहती हैं “हर गरीब को मकान देंगे।” लेकिन हम जैसे लोग? हम तो घुमक्कड़ हैं, जिनका जीवन न्यूज़ के पीछे
भागते-भागते कट जाता है।
जहाँ खबर, वहीं ठिकाना।
जहाँ सच, वहीं सफर।
सवाल यह नहीं कि मेरे पास घर क्यों नहीं है। सवाल यह है कि इस देश में घर सिर्फ “इमेज बिल्डिंग” का हिस्सा क्यों है?
नेता चुनाव आते ही कहते हैं “सबको छत देंगे, सबको आशियाना देंगे।” पर आज भी लाखों लोग सिर्फ कागज़ों में रहते हैं। रियल लाइफ़ में उनका घर वही है, जहाँ उनके पैर रुक जाएं।
मैं भी उन्हीं में से हूँ। मेरे पास घर नहीं, पर पोस्टल एड्रेस जरूर है। स्थाई निवास कागज़ों में है, असल में नहीं। और वोटर लिस्ट में नाम जरूर है, क्योंकि लोकतंत्र में एड्रेस जरूरी है, इंसान नहीं।
सिस्टम को बस एक चीज चाहिए
“पता”। चाहे आपकी छत टूट चुकी हो, चाहे आपकी जिंदगी टीन की छांव में गुजर रही हो।
सिस्टम कहेगा “सरकारी योजनाएं सबके लिए हैं।”
पर असलियत यह है कि योजनाओं की छांव में भी धूप ही ज्यादा है।
मेरा दोस्त जब ये सुन रहा था, तो उसने पूछा “सर, आमंत्रण पत्र कैसे भेजेंगे?”
मैंने हंसते हुए कहा “भाई, जिस तरह सबके भेजते हो, उसी तरह मेरे पोस्टल एड्रेस पर। घर नहीं है, पर पते का दिखावा जरूर है।” और यही है असली विडंबना। घर नहीं, पर बिजली का बिल जरूर है। छत नहीं, पर वोटर कार्ड जरूर है। स्थाई निवास नहीं, पर सरकार के भाषण में नाम जरूर है।
हम जैसे लोग, जो सच्चाई के लिए सड़कों पर भटकते हैं, उनका ठिकाना कहीं नहीं।
फिर भी, हम हारते नहीं।
क्योंकि यह सफर ही हमारी पहचान है। सारा जहां हमारा है।
याद रखिए घर नहीं होने का मतलब यह नहीं कि हम बेघर हैं।
हमारे पास सपने हैं, कलम है, और हौसले हैं। और जब तक यह है, तब तक कोई भी सरकार हमें सिर्फ पोस्टल एड्रेस तक सीमित नहीं कर सकती।

