मोहन सरकार में नाम के नागरिक ?
लेखक:अंतिम ख़बर
अलीराजपुर: सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों की अधूरी कहानी

वहां से निकलना आसान नहीं है और वहां रहना तो और भी मुश्किल। मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के उन छोटे-छोटे टापुओं पर आज भी लोग रह रहे हैं जिन्हें कभी विकास के नाम पर डुबो दिया गया था। सरदार सरोवर बांध के विस्थापित परिवार जिनकी ज़मीनें, घर और खेत सब कुछ नर्मदा के पानी में समा गया, आज भी पुनर्वास के नाम पर अधूरे वादों, टूटी उम्मीदों और सरकारी फाइलों की ठंडी स्याही के बीच जिंदगी काट रहे हैं।
सरदार सरोवर परियोजना देश की सबसे बड़ी नदी घाटी योजनाओं में से एक रही है। गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के हिस्से में आने वाली इस परियोजना ने विकास की नयी परिभाषा तो दी, लेकिन इस विकास की सबसे बड़ी कीमत उन लोगों ने चुकाई जो नर्मदा के किनारों पर पीढ़ियों से बसते आ रहे थे। अलीराजपुर, बड़वानी और धार जिलों के सैकड़ों गांव इस बांध की डूब सीमा में आए। सरकारी रेकॉर्ड में वे “पुनर्वासित” नागरिक हैं, मगर हकीकत यह है कि वे केवल “नाम के नागरिक” हैं नक्शे पर मौजूद, पर व्यवस्था की नज़रों से गायब।
2025 तक के आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में अब भी सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित लगभग 21,808 परिवार ऐसे हैं जिन्हें पूर्ण पुनर्वास नहीं मिल पाया है। शुरुआती सूचियों में इनकी संख्या 37,000 से अधिक बताई गई थी, पर बाद में हजारों परिवारों को “अप्रभावित” घोषित कर दिया गया। यह घोषणा केवल कागज़ों पर हुई, क्योंकि ज़मीन पर उनके खेत और घर अब भी डूब क्षेत्र में हैं। कुछ अध्ययनों में यह भी सामने आया कि परियोजना की वजह से दो लाख से अधिक लोगों का विस्थापन हुआ, लेकिन उनमें से अधिकांश का स्थायी ठिकाना अब तक तय नहीं हुआ।
मोंगाबे इंडिया की 2024 की एक रिपोर्ट में बताया गया कि अलीराजपुर के कई टापू गांवों तक आज भी सड़क नहीं पहुंची है। बरसात में ये गांव बाकी दुनिया से कट जाते हैं। न बिजली है, न स्वास्थ्य केंद्र, न स्कूल। सरकारी नावें भी मुश्किल से आती हैं। लोग नर्मदा के शांत दिखते पानी के नीचे अपने उजड़े घरों की यादों में जीते हैं।
जिन परिवारों को डूब क्षेत्र से बाहर दिखा दिया गया, उनकी हालत और भी खराब है। उनके पास न खेती योग्य जमीन है न रोज़गार। कई परिवार अब भी झोपड़ियों में रह रहे हैं, कुछ ने पास के जंगलों में अस्थायी ठिकाने बना लिए हैं। मुआवजे के नाम पर मिली रकम या तो बिचौलियों ने हड़प ली या जरूरतों ने निगल ली। महिलाएं लकड़ी बीनकर और मजदूरी करके घर चलाती हैं, जबकि पुरुष गुजरात और महाराष्ट्र के खेतों में मजदूर बनकर पलायन करते हैं।
इन इलाकों में कुपोषण और भूख की त्रासदी हर घर की कहानी है। अलीराजपुर और बड़वानी पहले से ही देश के सबसे गरीब जिलों में गिने जाते हैं। नर्मदा किनारे बसे विस्थापित गांवों में हालात और भी विकट हैं। एक हालिया सर्वे में सामने आया कि तीन में से एक बच्चा गंभीर कुपोषण का शिकार है। सरकारी आंगनवाड़ियों में न पोषण है न दवा। अस्पताल कई किलोमीटर दूर हैं और वहां तक पहुंचने का रास्ता पानी से घिरा रहता है।
सरकार की फाइलों में पुनर्वास पूरा बताया जाता है। रिपोर्टों में लिखा जाता है कि सबको जमीन और घर मिल चुके हैं। लेकिन असलियत यह है कि जिन जगहों पर लोगों को बसाया गया, वहां न पानी है, न बिजली, न रोजगार के साधन। कई परिवार वहां से वापस लौट आए क्योंकि पुराने गांवों की मिट्टी में उनकी जड़ें थीं। वे जानते हैं कि वहां पानी आएगा, मगर उस डूबती मिट्टी में भी एक अपनापन था जो पुनर्वास की बंजर भूमि में नहीं मिला।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर बार-बार कह चुकी हैं कि बांध का लाभ भले किसी के खेत तक पहुंचा हो या नहीं, लेकिन इसकी कीमत लाखों गरीबों ने अपनी ज़मीन, अपने जीवन और अपनी पहचान से चुकाई है। विकास के नाम पर जो कुछ हुआ, वह असमानता की एक नई कहानी है।
2025 में जब नर्मदा का जलस्तर 138.68 मीटर तक पहुंचा, तो अलीराजपुर के कई गांव एक बार फिर पानी में घिर गए। सरकार ने दावा किया कि सभी प्रभावितों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है, लेकिन स्थानीय पत्रकारों ने पाया कि दर्जनों गांव अब भी फंसे हुए हैं। न नावों की पर्याप्त व्यवस्था थी न राहत शिविर। जिनके घर डूब गए, उन्हें अस्थायी टेंट में रहने को मजबूर होना पड़ा।
कानूनी और सामाजिक संघर्ष अब भी जारी है। 1985 में शुरू हुआ यह आंदोलन आज 40 साल बाद भी अपने जवाबों की तलाश में है। 2025 में प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार, लगभग 16,000 परिवार ऐसे हैं जिन्हें बिना स्पष्ट कारण “प्रभावित सूची” से हटा दिया गया। उन्होंने अदालतों और प्रशासनिक दफ्तरों के चक्कर काट-काट कर अपने अधिकार की लड़ाई लड़ी है, मगर न्याय की गति अब भी सुस्त है।
सरकार और नर्मदा वैली डेवलपमेंट अथॉरिटी समय-समय पर नई घोषणाएं करती हैं। कहीं नकद मुआवजा, कहीं भूखंड का वादा, पर इन घोषणाओं का असर जमीन तक नहीं पहुंच पाता। पुनर्वास कॉलोनियां अधूरी हैं, सुविधाएं नाममात्र की हैं। जो लोग वहां बसाए गए हैं, वे भी रोजमर्रा की दिक्कतों से परेशान हैं।
अलीराजपुर के ये विस्थापित दरअसल हमारे लोकतंत्र के वे भूले हुए नागरिक हैं जिनका अस्तित्व केवल दस्तावेजों में है। वे वोट डालते हैं, राशन कार्ड रखते हैं, पर उनके नाम से कोई भविष्य नहीं जुड़ा। वे नर्मदा के उस बहाव में बह गए हैं जहाँ विकास की परिभाषा केवल आंकड़ों में दर्ज होती है, इंसानों में नहीं।
जब शाम होती है और नर्मदा का पानी सुनहरी रोशनी में चमकता है, तो उन गांवों के किनारे बैठा हर व्यक्ति एक ही सवाल पूछता है क्या हम सच में इस देश के नागरिक हैं, या सिर्फ नाम के नागरिक?

