डायनासोर का अड्डा जहाँ इतिहास मरा नहीं, मारा जा रहा है?

*डायनासोर का अड्डा जहाँ इतिहास मरा नहीं, मारा जा रहा है?*

*(एक खोजी रिपोर्ट – राजेन्द्र सिंह जादौन, विशेष संवाददाता,)*

 

  • *बाग की मिट्टी में दबी सदीयों की कहानी*

धार जिले का बाग एक ऐसा नाम, जो कभी इतिहास और प्रकृति दोनों का संगम रहा है।
यह वही धरती है, जिसने करोड़ों साल पहले डायनासोरों को विचरते देखा था। वही धरती, जिसने प्राचीन वृक्षों को पत्थर में बदलते देखा, और वही धरती, जो अब सरकार की योजनाओं, ठेकों और लापरवाही के नीचे दम तोड़ रही है।

यह कहानी केवल एक “डायनासोर पार्क” की नहीं है।
यह कहानी है उन उम्मीदों की, जो सरकारी घोषणाओं में जन्म लेती हैं और फाइलों में मर जाती हैं। यह कहानी है उस इतिहास की, जिसे हमने बचाने का वादा किया था, लेकिन जिसे हम खुद मिट्टी में मिला रहे हैं

*एक सपना था डायनासोर पार्क*

बाग क्षेत्र में पाए गए जीवाश्म भारत ही नहीं, बल्कि एशिया के सबसे प्राचीन साक्ष्यों में गिने जाते हैं। यहाँ अब तक 256 डायनासोर अंडों के फॉसिल्स, सैकड़ों पत्थर-जैसे वृक्षों के जीवाश्म और लाखों वर्ष पुराने भूगर्भीय नमूने मिले हैं। वर्ष 2010 में इस क्षेत्र को “डायनासोर फॉसिल्स नेशनल पार्क” घोषित किया गया। मकसद था प्राकृतिक धरोहर का संरक्षण, वैज्ञानिक अध्ययन और पर्यटन को बढ़ावा देना।

फिर आया 2025 का बजट।
12 मार्च 2025 को वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा ने विधानसभा में कहा

> “धार जिले के बाग क्षेत्र में डायनासोर जीवाश्म राष्ट्रीय उद्यान विकसित किया जाएगा। यह नर्मदा घाटी के इतिहास को दुनिया के सामने लाने की दिशा में बड़ा कदम होगा।”

इस घोषणा के बाद उम्मीदें जगीं। बाग के लोगों ने सोचा कि अब उनका इलाका भारत के भूगर्भीय नक्शे पर चमकेगा।
पर हुआ वही जो अक्सर होता है घोषणा कागज़ पर रही, और ज़मीन पर सिर्फ झाड़ियाँ उग आईं।

*फॉसिल्स पार्क: जो विज्ञान बनना था, मज़ाक बन गया*

बाग का यह फॉसिल्स पार्क अब सिर्फ नाम के लिए पार्क है।
न कोई गेट सही से बना है, न कोई बोर्ड। जहाँ डायनासोर के मॉडल खड़े होने थे, वहाँ मवेशी चर रहे हैं।
जहाँ संग्रहालय होना था, वहाँ एक टूटी दीवार और सूखा तालाब है।

सरकार ने योजना में पर्यटन गतिविधियाँ जैसे “हॉट एयर बैलून”, “बंजी जंपिंग”, “सेल्फी पॉइंट” और “इको सेंटर” जैसी चीज़ें शामिल की थीं। लेकिन ये सब सिर्फ प्रस्ताव में हैं वास्तविकता यह है कि वहाँ जाने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह किसी पार्क में आया है या किसी छोड़े गए पत्थर खदान में।

*स्थानीय ग्रामीणों का कहना है*

> “पहले यहाँ कई बड़े-बड़े पत्थर रखे थे, जिनमें पेड़ जैसे निशान थे। अब वो आधे टूट गए हैं, कुछ उठाकर ले गए लोग। रात में कोई निगरानी नहीं होती।”

फॉसिल्स खुले आसमान के नीचे पड़े हैं। धूप और बारिश से उनकी सतह घुलने लगी है। कोई कोटिंग नहीं, कोई छाया नहीं, कोई वैज्ञानिक देखरेख नहीं।

*इतिहास को सहेजने की नहीं, सजाने की राजनीति*

पार्क की अवधारणा केवल वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं थी।
यह परियोजना “इको-टूरिज्म” और “लोकल एम्प्लॉयमेंट” को बढ़ावा देने का दावा भी करती थी। वन विभाग ने दावा किया कि इससे बाग के आदिवासी युवाओं को रोजगार मिलेगा।

लेकिन पाँच साल में यहाँ सिर्फ कुछ अस्थायी मजदूर लगे और फिर सब काम बंद हो गया।
नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत जो “नेचर टूरिज्म” प्लान बना था, वह भी अधूरा रह गया। सरकारी फाइलों में पार्क “50 प्रतिशत पूर्ण” बताया गया है, लेकिन ज़मीनी तस्वीर बिल्कुल अलग है।

*स्थानीय समाजसेवी बबलू कहते हैं*

> “यहाँ अधिकारी तब आते हैं जब कोई नेता दौरा करता है। फोटो खिंचवाते हैं, और फाइलों में सब कुछ ‘पूर्ण’ दिखा देते हैं। पर यहाँ विकास का एक पत्थर भी अपनी जगह नहीं।”

*फॉसिल्स धरती की डायरी, जिसे हमने फाड़ दिया*

फॉसिल्स कोई आम पत्थर नहीं होते। यह धरती की डायरी हैं, जो करोड़ों वर्षों का इतिहास बताती हैं। प्रत्येक जीवाश्म में उस समय की मिट्टी, जलवायु और जैविक संरचना की झलक होती है।
भारत में इतने बड़े पैमाने पर जीवाश्म केवल बाग और बालसमुद्र (गुजरात) क्षेत्रों में ही मिले हैं।
यह क्षेत्र सुपरकॉन्टिनेंट गोंडवाना लैंड का हिस्सा माना जाता है जहाँ डायनासोरों की अंतिम प्रजातियाँ रहती थीं। यह भूगर्भीय दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान क्षेत्र है। पर दुर्भाग्य से, भारत में ऐसे स्थलों की देखरेख “वन विभाग” जैसे संस्थानों को दी जाती है, जो वैज्ञानिक नहीं, प्रशासनिक दृष्टिकोण से काम करते हैं।

इसका नतीजा यही हुआ कि करोड़ों वर्ष पुराने नमूने अब फिर मिट्टी में मिल रहे हैं। कई फॉसिल्स पर फफूंदी और दरारें आ गई हैं।कुछ फॉसिल्स गायब हैं। किसी का रिकॉर्ड नहीं।

*एक स्थानीय शिक्षक बताते हैं*

> “हम अपने बच्चों को यहाँ इतिहास दिखाने लाते थे। अब बच्चे पूछते हैं – ‘डायनासोर कहाँ हैं?’और मैं बस चुप हो जाता हूँ।”

*करोड़ों का खेल विकास की फाइलों में दफन सच*

सूत्रों के मुताबिक, डायनासोर पार्क परियोजना के लिए लगभग 6 से 8 करोड़ रुपये के प्रस्ताव मंज़ूर किए गए थे। ये राशि पर्यटन और वन विभाग के साझा मद से जारी की जानी थी। लेकिन किसी भी विभाग ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया कि कितना पैसा जारी हुआ और कहाँ खर्च हुआ। पार्क का निर्माण एक निजी ठेकेदार को सौंपा गया। मशीनें आईं, कुछ गड्ढे खुदे, कुछ दीवारें उठीं फिर सब बंद। फिर भी फाइलों में “70% कार्य पूर्ण” लिख दिया गया।

आधिकारिक जवाब वही पुराना “कार्य प्रगति पर है।”लेकिन “प्रगति” शब्द यहाँ मज़ाक बन गया है। क्योंकि इस “प्रगति” में इतिहास पीछे जा रहा है।

*फॉसिल्स चोरी, रिकॉर्ड गायब – ‘साइंस’ की जगह ‘साइलेंस’*

2017 में बाग फॉसिल्स पार्क में चोरी की पहली खबर आई थी।
कई छोटे जीवाश्म और पत्थर-जैसे अंडे गायब हुए।
एफआईआर दर्ज नहीं हुई।
अधिकारियों ने कहा “शायद हवा में बह गए होंगे।” उसके बाद हर साल कुछ न कुछ फॉसिल्स गायब होते गए। आज स्थिति यह है कि न तो फॉसिल्स की पूरी सूची मौजूद है, न उनका नक्शा। जो कभी “साइट मैप” हुआ करता था, अब बोर्ड पर फीका पड़ा है।

*एक पूर्व वन अधिकारी (नाम न प्रकाशित) कहते हैं*

> “फॉसिल्स की चोरी सिर्फ यहाँ नहीं, देशभर में हो रही है।
यहाँ सबसे बड़ी समस्या है जागरूकता की कमी।स्थानीय स्तर पर कोई ट्रेनिंग या मॉनिटरिंग नहीं।”
लेकिन सवाल उठता है. अगर करोड़ों का बजट केवल बोर्ड लगाने में खर्च हुआ, तो जिम्मेदार कौन? क्या यह सिर्फ अनदेखी है या योजनाबद्ध लापरवाही?

*विज्ञान से ज्यादा ‘विजिटिंग कार्ड’ वाला विकास*

मध्यप्रदेश सरकार ने इस परियोजना को “राष्ट्रीय उद्यान” का दर्जा देने की बात कही थी।
लेकिन अब तक इसका कोई औपचारिक गजट नोटिफिकेशन जारी नहीं हुआ। फॉसिल्स क्षेत्र को इको-सेंसिटिव ज़ोन घोषित तो किया गया है, पर ज़मीन पर उसका पालन नहीं। जहाँ वैज्ञानिकों को रिसर्च करनी चाहिए थी, वहाँ अफसरों के दौरे और ठेकेदारों की मीटिंग होती है। जहाँ संग्रहालय बनना था, वहाँ नेता पोस्टर लगवाते हैं।
यह एक क्लासिक उदाहरण है कि कैसे “विज्ञान” को “विजिटिंग कार्ड” में बदल दिया गया।

*बाग जहाँ दो इतिहास टकरा रहे हैं*

बाग की मिट्टी अब दो इतिहासों को समेटे हुए है। एक वह जो 6.5 करोड़ साल पुराना है, जब धरती पर डायनासोर थे। दूसरा वह जो आज का है, जब इंसान इतिहास को मिटा रहा है। यहाँ के फॉसिल्स केवल पत्थर नहीं, सबूत हैं कि कभी यह धरती जीवन से भरी थी।
और आज, वही धरती सरकारी लापरवाही से बेजान हो रही है।

*स्थानीय लोग कहते हैं*

> “यहाँ अब डायनासोर नहीं, अफसर विचरते हैं। फर्क सिर्फ इतना है पहले वाले विलुप्त हो गए थे, आज वाले मिट्टी में सब कुछ विलुप्त कर रहे हैं।”

*आर्थिक दृष्टि से भी नुकसान*

अगर बाग का डायनासोर पार्क सही ढंग से विकसित किया जाए, तो यह सालाना हजारों पर्यटकों को आकर्षित कर सकता है। धार, महेश्वर, मांडू जैसे ऐतिहासिक स्थलों के बीच यह एक नया “साइंस टूरिज्म” सर्किट बन सकता है। इससे स्थानीय युवाओं को रोजगार मिलता गाइड, होटल, ट्रांसपोर्ट, स्मारिका दुकानें, रिसर्च सेंटर आदि से। पर आज यहाँ सन्नाटा है। पार्क के बाहर कोई गार्ड नहीं, कोई गाइड नहीं। सिर्फ एक टूटा बोर्ड जिस पर लिखा है “वेलकम टू डायनासोर पार्क।” नीचे मिट्टी में आधा दबा हुआ है “डेवलप्ड बाय – वन विभाग।”

*पर्यावरणीय असर जब उपेक्षा भी विनाश बन जाए*

फॉसिल्स सिर्फ पत्थर नहीं, वे उस समय की पर्यावरणीय स्थितियों का संकेत भी देते हैं।
बाग का यह इलाका नर्मदा घाटी की भौगोलिक संरचना का जीवंत नमूना है। यहाँ के पेड़ों के फॉसिल्स बताते हैं कि कभी यहाँ घना उष्णकटिबंधीय जंगल था।
अगर यह स्थल नष्ट होता है, तो नर्मदा घाटी के भूगर्भीय इतिहास का एक अध्याय मिट जाएगा।

पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, “फॉसिल्स का नाश केवल विज्ञान की हानि नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी के अध्ययन का भी नुकसान है।”सरकार अगर समय रहते कदम नहीं उठाती, तो यह साइट पूरी तरह समाप्त हो सकती है।

*जांच की सुगबुगाहट पर क्या निकलेगा कुछ?*

मीडिया रिपोर्ट्स के बाद अब इस पूरे मामले में विभागीय जांच की बातें चल रही हैं। पर यह नई बात नहीं। पहले भी कई बार जांच के नाम पर फाइलें खुलीं, बैठकें हुईं, और फिर सब ठंडे बस्ते में चला गया। सूत्र बताते हैं कि इस बार मुख्यमंत्री कार्यालय ने पर्यटन और वन विभाग से “स्टेटस रिपोर्ट” मांगी है। लेकिन इतिहास गवाह है.जब तक फॉसिल्स पूरी तरह मिट्टी में न मिल जाएँ, तब तक सरकारें रिपोर्ट ही लिखती रहती हैं।

“फॉसिल्स फिर फॉसिल्स बनने को तैयार”

यह वाक्य अब केवल व्यंग्य नहीं, बल्कि हकीकत है। जिन जीवाश्मों को हमने पृथ्वी की धरोहर कहा,जिन्हें हमने अगली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करने का संकल्प लिया,वे अब फिर मिट्टी में लौट रहे हैं।

बाग के इस फॉसिल्स पार्क की कहानी हमें चेतावनी देती है ।अगर हमने अपने अतीत की रक्षा नहीं की, तो भविष्य हमें माफ़ नहीं करेगा।
यह सिर्फ एक पार्क की नहीं, एक सोच की हार है। एक ऐसी सोच की जो विकास को पोस्टर और योजनाओं में देखती है, ज़मीन पर नहीं।

जिम्मेदार कौन?

क्या यह वन विभाग की नाकामी है? क्या यह ठेकेदारों की मिलीभगत है? या यह उस सिस्टम की साजिश है, जिसमें “घोषणा” ही उपलब्धि बन जाती है?

जब सरकारें इतिहास को संभालने में असफल होती हैं,
तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल यह सीखती हैं कि हमारे देश में हर चीज़ की “उम्र” सिर्फ एक चुनाव तक होती है।

बाग का फॉसिल्स पार्क अब वही प्रतीक बन गया है जहाँ डायनासोर मरे नहीं, बल्कि “सरकारी योजनाओं” ने उन्हें मारा।

धार जिले का बाग हमें याद दिलाता है कि इतिहास और भूगोल किताबों से नहीं बचते
उन्हें बचाने के लिए जिम्मेदारी, ईमानदारी और दृष्टि चाहिए।

फॉसिल्स की यह भूमि केवल एक पर्यटन स्थल नहीं,
यह एक दर्पण है जिसमें हम अपनी सभ्यता की विफलता देख सकते हैं।
अगर अब भी समय रहते सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाए, तो वह दिन दूर नहीं जब बाग के लोग

यह कहेंग

“यहाँ डायनासोर नहीं, ईमानदारी के भी फॉसिल्स मिलते हैं।

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