भारत की आर्थिक हकीकतः कुछ ही लोगों का है बाजार

भारत की आर्थिक हकीकतः कुछ ही लोगों का है बाजार विवेक कुमार भारत को दुनिया के एक बड़े बाजार के रूप में देखा जाता है लेकिन ताजा रिपोर्ट दिखा रही हैं कि यह बाजार बहुत बड़ा नहीं है और इसमें विस्तार भी नहीं हो रहा है. जब भी विदेशों के साथ भारत के संबंधों की बात होती है, तो सबसे पहले कहा जाता है कि भारत इतना बड़ा बाजार है कि सबको उसकी जरूरत है. जिस देश में लगभग डेढ़ अरब लोग रहते हैं, उसे एक बड़े बाजार के रूप में देखा जाना कुदरती है. लेकिन ताजा रिपोर्टें दिखाती हैं कि भारत का बाजार जितना बड़ा दिखता है, शायद उतना है नहीं. ये रिपोर्टें कहती हैं कि देश की आर्थिक तरक्की अमीरों तक सीमित हो रही है. इससे आय की असमानता बढ़ रही है और दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठ रहे हैं. भारत की विकास दर के सामने यह बड़ी चुनौती होगी. ब्लूम वेंचर्स की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की आबादी बहुत बड़ी है, लेकिन असली उपभोक्ता वर्ग काफी छोटा है. सिर्फ 13-14 करोड़ भारतीय ही “उपभोक्ता वर्ग” में आते हैं, जिनके पास मूलभूत चीजों के अलावा अन्य खर्च के लिए पर्याप्त पैसा है. इसके अलावा, 30 करोड़ लोग “उभरते” वर्ग में हैं, लेकिन उनकी खर्च करने की क्षमता सीमित है. हाल ही में जारी फाइनैंस कंपनी परफियोस और पीडब्ल्यूसी इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय लोग अपने अनिवार्य खर्च पर सबसे अधिक पैसे खर्च करते हैं, जो उनके कुल खर्च का 39 प्रतिशत है. इसके बाद आवश्यक खर्च पर 32 प्रतिशत होता है. रिपोर्ट में पाया गया कि भारतीय उपभोक्ताओं ने 2023 में अपने खर्च का 29 प्रतिशत ही मूलभूत जरूरतों के बाहर खर्च के लिए रखा था, जिसमें ऑनलाइन गेमिंग का हिस्सा बाहर खाने और ऑर्डर करने की तुलना में थोड़ा अधिक था. एक शुरुआती स्तर पर कमाने वाले व्यक्ति ने यात्रा पर हर महीने 776 रुपये खर्च किए, जबकि एक उच्च आय वाले व्यक्ति ने 3,066 रुपये खर्च किए. हालांकि, इसमें क्रेडिट कार्ड से भुगतान को शामिल नहीं किया गया है, जिसे कई लोग फ्लाइट टिकट बुक करने के लिए पसंद करते हैं. अमीर-गरीब का बढ़ता फर्क रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि उपभोक्ता वर्ग में ज्यादा विस्तार नहीं हो रहा. इसके बजाय, अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं. इसे “समृद्धि का गहरा होना” कहा जाता है, न कि “समृद्धि का बढ़ना”. ब्लूम वेंचर्स की रिपोर्ट कहती है, “कंपनियां अब आम उपभोक्ताओं के बजाय महंगे उत्पादों पर ध्यान दे रही हैं. लग्जरी घरों और प्रीमियम स्मार्टफोन्स की बिक्री बढ़ रही है, जबकि किफायती घरों की हिस्सेदारी पांच साल में 40 फीसदी से घटकर 18 फीसदी रह गई है.” रिपोर्ट में भारत की अंग्रेजी के अक्षर के-आकार की आर्थिक रिकवरी का भी जिक्र है. इसमें अमीरों की संपत्ति बढ़ रही है, जबकि गरीबों की खरीद शक्ति कम हो रही है. भारत के शीर्ष 10 फीसदी लोगों के पास अब देश की कुल आय का 57.7 फीसदी हिस्सा है, जबकि 1990 में यह 34 फीसदी था. वहीं, निचले 50 फीसदी लोगों की आय का हिस्सा 22.2 फीसदी से घटकर 15 फीसदी रह गया है. घटती बचत और बढ़ता कर्ज मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स की एक रिपोर्ट भी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है. रिपोर्ट बताती है कि भारत का मध्य वर्ग, जो उपभोग का मुख्य चालक था, अब संघर्ष कर रहा है. स्थिर वेतन और महंगाई ने उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर कर दी है. पिछले 10 वर्षों में मध्य वर्ग की वास्तविक आय आधी हो गई है, जिससे बचत दर भी गिर गई है. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट के मुताबिक, घरेलू शुद्ध वित्तीय बचत 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है. आर्थिक दबाव के कारण कई उपभोक्ताओं ने बिना गारंटी वाले लोन लेकर खर्च जारी रखा. लेकिन अब आरबीआई ने आसान क्रेडिट पर सख्ती कर दी है, जिससे उधार लेना मुश्किल हो गया है. ब्लूम वेंचर्स की रिपोर्ट के लेखक साजित पई ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा, “अगर यह सुविधा बंद होती है तो उपभोग पर असर पड़ेगा.” यह चिंता इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि भारत की जीडीपी में उपभोग का बड़ा योगदान है. मिडल-इनकम ट्रैप का खतरा विश्व बैंक की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2024 में भी कहा गया था कि भारत मिडल इनकम ट्रैप में फंस सकता है. ऐसा तब होता है जब देश एक निश्चित आर्थिक स्तर तक पहुंच तो जाते हैं, लेकिन उच्च-आय वाली अर्थव्यवस्था में परिवर्तित नहीं हो पाते. रिपोर्ट के अनुसार, कई विकासशील देश औसतन 8,000 डॉलर प्रति व्यक्ति जीडीपी के स्तर पर अटक जाते हैं. 1990 के बाद से सिर्फ 34 मध्यम-आय वाले देश उच्च-आय वर्ग में पहुंच सके हैं. भारत के सामने भी यही चुनौती है. एक बड़ी समस्या यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था छोटे व्यवसायों पर निर्भर है, जो बड़े स्तर पर नहीं बढ़ पाते. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की 90 फीसदी कंपनियों में पांच से कम कर्मचारी हैं और बहुत कम कंपनियां 10 कर्मचारियों से आगे बढ़ पाती हैं. नियमों की जटिलता और बाजार की खामियों के कारण ये व्यवसाय आगे नहीं बढ़ पाते, जिससे रोजगार और उत्पादकता पर असर पड़ता है. विश्व बैंक ने सुझाव दिया है कि भारत को छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए नियमों को आसान बनाना चाहिए, क्रेडिट की पहुंच बढ़ानी चाहिए और नवाचार को प्रोत्साहित करना चाहिए. रिपोर्ट में कहा गया है, “अगर भारत छोटे व्यवसायों के लिए बेहतर माहौल बनाता है, तो रोजगार बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था मजबूत होगी. आर्थिक बदलाव की जरूरत भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती विकास और इनोवेशन के बीच संतुलन बनाए रखने की है. विश्व बैंक की रिपोर्ट चेतावनी देती है कि बड़ी कंपनियां ऐसी नीतियों का समर्थन करती हैं, जो उन्हें लाभ पहुंचाती हैं, लेकिन पूरे बाजार की दक्षता सुधारने वाले बदलावों का विरोध करती हैं. भारत में स्टार्टअप का माहौल अच्छा है, लेकिन कठिन बाजार परिस्थितियों और पूंजी की कमी के कारण ये तेजी से बढ़ नहीं पाते. इसके अलावा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन सफेदपोश नौकरियों के लिए खतरा बन रहे हैं. भारत की अर्थव्यवस्था सेवा क्षेत्र पर निर्भर है और अगर ये ट्रेंड जारी रहे, तो उपभोक्ता मांग पर बुरा असर पड़ सकता है. सरकार की आर्थिक समीक्षा में भी इस खतरे का जिक्र किया गया है. रिपोर्ट में ब्रेन ड्रेन यानी प्रतिभाओं के पलायन का मुद्दा भी उठाया गया है. बड़ी संख्या में भारतीय पेशेवर जर्मनी जैसे पश्चिमी यूरोपीय देशों और उत्तरी अमेरिका में बस रहे हैं. इससे भारत की इनोवेशन क्षमता और आर्थिक विकास कमजोर हो सकता है. सरकार ने प्रतिभा को रोकने के लिए कई प्रयास किए हैं, लेकिन अब तक कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा है. भविष्य की अनिश्चितता इन चुनौतियों के बावजूद कुछ कारक अल्पकालिक राहत दे सकते हैं. अच्छी फसल और हालिया बजट में घोषित 12 अरब डॉलर के टैक्स कट से ग्रामीण उपभोग बढ़ सकता है. लेकिन अगर आय असमानता, वेतन में ठहराव, कमजोर व्यवसाय वृद्धि और नौकरियों की कमी जैसी समस्याएं जारी रहीं, तो भारत की दीर्घकालिक आर्थिक स्थिति अस्थिर बनी रहेगी. विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत को आर्थिक ठहराव से बाहर निकलने के लिए बड़े सुधारों की जरूरत है. समृद्धि को व्यापक बनाना, छोटे व्यवसायों को मजबूत करना और समावेशी अर्थव्यवस्था बनाना अहम होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो भारत उन देशों की सूची में शामिल हो सकता है, जो मिडल-इनकम ट्रैप से बाहर नहीं निकल पाए

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